Author
श्रयना भट्टाचार्य
Publisher
हार्पर हिंदी
Date
March 23, 2023
Final Verdict
4/5

About the Author

श्रयना भट्टाचार्य ने दिल्ली विश्वविद्यालय और हार्वर्ड विश्वविद्यालय में विकास अर्थशास्त्र में प्रशिक्षण लिया। 2014 से, एक बहुपक्षीय विकास बैंक में एक अर्थशास्त्री के रूप में अपनी भूमिका में, उन्होंने सामाजिक नीति और नौकरियों से संबंधित मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया है। इससे पहले, उन्होंने सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च, SEWA यूनियन और इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल स्टडीज ट्रस्ट के साथ अनुसंधान परियोजनाओं पर काम किया। उनका लेखन इंडियन एक्सप्रेस, ईपीडब्ल्यू, इंडियन क्वार्टरली और द कारवां में छपा है । वह नई दिल्ली में रहती हैं।

शुचिता मीतल

कैसे शाह रुख खान जोड़ते हैं भिन्न सामाजिक वर्गों की महिलाओं को: श्रयना भट्टाचार्य की महिलानॉमिक्स

श्रयना भट्टाचार्य की लोकप्रिय किताब Desperately Seeking Shah Rukh का हिंदी अनुवाद, महिलानॉमिक्स – उम्मीद, उन्नति और शाह रुख खान, शुचिता मीतल द्वारा किया गया है। इस किताब में लेखिका समाज के विभिन्न वर्गों से आई महिलाओं को एक ऐसी चीज़ से जुड़ा हुआ देखती है, जिससे ऐसा प्रतीत होता है मानो पूरी कायनात ने उन्हें एक करने की कोशिश की हो – शाह रुख खान और उनके प्रति दीवानगी और जुनून।

We encourage you to buy books from a local bookstore. If that is not possible, please use the links on the page and support us. Thank you.

लेखिका देश के विभिन्न वर्गों, क्षेत्रों, और भूमिकाओं से आई महिलाओं के जीवन की गहराई में जाकर उनके रोजमर्रा के मुद्दे, जैसे प्यार, पैसा, खूबसूरती, जीवन और व्यवहार एवं फिल्मों, पर उनके विचार जानने का प्रयास करती हैं, और कैसे शाह रुख खान की फिल्मों की तरह, इनमें एक नया नज़रिया, नया विचार और उतार चढ़ाव देखने को मिलते हैं।

शाह रुख खान की फिल्मों, साक्षात्कारों और उनकी ज़िंदगी के विभिन्न पहलुओं को महिलाओं की दृष्टि, विचारधाराओं और महत्वाकांक्षाओं के कोण से देखते हुए, लेखिका अपनी टिप्पणियों से एक नया दृष्टिकोण देती हैं – और शाह रुख खान के सफ़र को एक नए नज़रिए से संवारती हैं। लेखिका विभिन्न विश्वसनीय श्रोतों का उपयोग करते हुए समाज को आयना दिखाती हैं व महिलाओं के आर्थिक स्थिति का विवरण करती हैं, जो कि उनकी दैनिक जिंदगी पर सक्रिय और निष्क्रिय, दोनों तरीकों से प्रभाव डालता है।

शाह रुख खान की फिल्म “ज़ीरो” में उनके किरदार और भूमिका के बारे में चर्चा करते वक्त लेखिका लिखती हैं — “शाहरुख फेमिनिस्ट आइकन नहीं है। किसी फ़िल्म की व्यवसायिक नियति को तय करने वाली पुरुषों की ज़बरदस्त ताकत कभी भी ऐसा होने नहीं देगी।” यह एक ऐसा साधारण सा दिखने वाला वाक्य है, जो गौर करने पर कई सवाल खड़े करता है। फिल्मों, रोमांच, मनोरंजन, प्रेम, इन सबसे परे जाकर कैसे व्यवसाय वह कारक बनता है, जो कर्ता और कर्म, दोनों की नींव को हिलाकर रख देता है।

समाज में चाहे आप किसी के लिए भगवान हो या इंसान, व्यवसाय वह कारण है, जो व्यक्ति के हाव भाव से लेकर मनोभाव तक, उसे निचोड़कर रख देता है। वरना धर्म में व्यवसाय, राजनीति में व्यवसाय, और इन दोनों का आपस में व्यवसाय लोगों को सोचने पर मजबूर कर दे। लेकिन जब लोगों के यहां सोचने पर सवाल उठने लगे हों, तब फिल्मों में व्यवसाय का सवाल उठाना तो एक सपना हैं। एक ऐसा सपना जिसके पदचिन्ह इस किताब में मिलते हैं।

लेखिका का अपनी पृष्ठभूमि – जो उनके सहभागियों से अलग, और कई मायनों में प्रिविलेज्ड है – के प्रति सचेत रहना उनकी जागरूकता को दर्शाता है एवं इस शोध के प्रति पक्षपात और पूर्वाग्रहों को दूर रखने में मदद करता है। साथ ही, अनुवादक द्वारा किताब का शाब्दिक अनुवाद पर ध्यान देने के बजाए उसके मूल अर्थ पर जाना एवं कुछ शब्दों को अंग्रेजी से जस के तस दर्शाना, अनुवाद को और अधिक मज़बूत बनाता है एवं पढ़ने के बहाव में एक रुकावट की जगह चंचलता एवं गति लाता है।

हालांकि कई जगहों पर किताब का झुकाव आर्थिकी पहलुओं और आंकड़ों पर ज़्यादा चला जाता है, जिससे पठनीयता और वास्तविकता का संतुलन डगमगाता है। यह बात ध्यान रखना ज़रूरी है कि यह किताब शाह रुख खान की जिंदगी, फिल्मों और रुझानों के पहलुओं की न होकर, महिलाओं, उनकी आकांक्षाओं, स्वतंत्रता, एवं आवाज़ को दर्शाती है। और अगर इस किताब को यह ध्यान में रख कर पढ़ा जाए, तो इसका मज़ा ज़्यादा लिया जा सकता है।

शाह रुख खान

महिलानॉमिक्स – उम्मीद, उन्नति और शाह रुख खान की पसंदीदा पंक्तियां:

क्योंकि इस पॉश और सुरक्षित सिनेमा हॉल में हमारा फ़ैनडम ऐसी जगह थी जहां माफ़ी दरकार नहीं थी, यह ऐसी जगह थी जहां हम पुरुष निगाहों से मुक्त थे, एक ऐसी जगह जहां हमने अपने आप में होने के लिए इजाज़त नहीं मांगी थी, जहां किसी और की मौजूदगी मायने नहीं रखती थी। यह एक अंधेरे हॉल में उन क्षणिक पलों में से एक था जब हमें सुंदर, आकर्षक और उचित होने की परवाह नहीं थी।

विद्या और मैं आम जीवन में सौम्य और विनम्र थे, लेकिन फ़िल्म देखने के दौरान फ़ोन पर बातचीत करने वाले लोगों पर चिल्लाने का हमारा साझा इतिहास था। सिनेमा हॉल हमें इजाज़त देता है कि इस फ़िक्र को छोड़ दें कि लोग हमारे बारे में क्या सोचते हैं, कि बेबाकी से अपने आराम, मस्ती और आज़ादी पर दावा करें।

Jainand Gurjar

Jainand Gurjar

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *