कमलाकान्त त्रिपाठी द्वारा लिखित विनायक दामोदर सावरकर: नायक बनाम प्रतिनायक (किताबघर प्रकाशन, 2024) की अमृतेश मुखर्जी समीक्षा प्रस्तुत करते हैं।
ऐसा क्यों हुआ कि इस देश के एक ही इतिहास पुरुष को कुछ लोग नायक तो कुछ प्रतिनायक समझते हैं? क्या हमारा इतिहास-बोध इतना खंडित और निस्थाहीन है कि अकादमिक तटस्थता और विश्वसनीयता हमारी अंतिम प्राथमिकता रह गई है? तथ्य तो तथ्य होते हैं, वे बस घटित होते हैं, न उनका कोई पक्ष होता है, न विपक्ष।
– कमलाकान्त त्रिपाठी, विनायक दामोदर सावरकर: नायक बनाम प्रतिनायक
इन शब्दों से शुरू करते हैं कमलाकान्त त्रिपाठी इस कहानी को। एक ऐसे समय में जब इतिहास आज के वर्तमान का उतना ही हिस्सा है जितना शायद अपने वर्तमान का रहा होगा, ऐतिहासिक चरित्रों का नायकीकरण या दानवीकरण सामान्य क़िस्से हैं आज की राजनीति व समाज में। और कुछ बिरले चरित्र ही इतने प्रसिद्ध होंगे आज की सामाजिक चेतना में जितने कि विनायक दामोदर सावरकर। कहीं एक जगह उन्हें देश का सबसे प्रभावशाली व महत्वपूर्ण स्वतंत्रता सेनानी क़रार दिया जाता है, तो कहीं वे “माफ़ीवीर” जैसे नामों से अपमानित व तिरस्कारित किए जाते हैं।
विनायक दामोदर सावरकर की जीवनावली
कमलाकान्त त्रिपाठी सावरकर के बचपन काल से ही उनके चरित्र व संदर्भों को उजागर करते हैं। वे कैसे परिवार में बढ़े हुए, किन संस्थाओं में शिक्षा प्राप्त की, उनके बचपन व यौवन में प्रेरणा स्त्रोत कौन रहे, वे किस प्रकार के विद्यार्थी थे, इत्यादि। इससे आपकी मुलाक़ात होती है एक बुद्धिजीवी से, जिसका जीवन व राष्ट्र के प्रति अद्वितीय दृष्टिकोण था, व जो देश और देशवासियों पर हो रहे अत्याचारों के सख़्त ख़िलाफ़ व अधिकारों के लिए लड़ने को आतुर था। आपकी मुलाक़ात होती है एक ऐसे विद्यार्थी से जो बड़ी ही सहजता से अपने सहपाठियों को एकत्रित व आक्रोशित करने की क्षमता रखता था।
किंतु जब खुलकर सत्य का प्रचार और व्यवहार राज्य की संगठित हिंसा द्वारा निषिद्ध हो, तब भूमिगत संगठन और गुप्त युद्ध-पद्धति न्यायोचित हो जाती है, क्योंकि तब हिंसा से लड़ने के लिए शक्ति-प्रयोग अनिवार्य और अपरिहार्य हो जाता है।
हम पिस्तौल उठाते हैं केवल इसलिए कि आप हमें बंदूक नहीं उठानी देते। हम अंधेरे में एकत्र होकर माता के बंधनों को तोड़ने के साधनों को संयोजित करते हैं तो केवल इसलिए कि आप हमें प्रकाश से वंचित रखते हैं।
– कमलाकान्त त्रिपाठी, विनायक दामोदर सावरकर: नायक बनाम प्रतिनायक
कहानी उनके कॉलेज जीवन से सफ़र करती है उनके लंदन और फिर पेरिस में गतिविधियों तक, कैसे उन्होंने एकजुट किया भारत से बाहर रह रहे नाममात्र भारतीय, ब्रितानी शिक्षा के अधीन, और कैसे ब्रिटिश भारतीय सरकार उन्हें जस-तस भारत लाना चाहती थी, क्योंकि इंग्लैंड में लोकतांत्रिक सरकार थी व निष्पक्ष न्याय पालिका। उनके लन्दन में निवास के दौरान उन्होंने कई भारतीयों को प्रेरित व क्रांति के पथ पर ले जाने वाली पुस्तक, चे स्वातंत्र्यसमर (अंग्रेज़ी अनुवाद: The Indian War of Independence 1857), लिखी जो तत्काल भारत में प्रतिबंधित कर दी गई।
त्रिपाठी कई ऐसे क्रांतिवीरों की कहानियों व संघर्षों पर भी प्रकाश डालते हैं, जिनके विषय में अधिकतर लोगों को कोई जानकारी ही नहीं, ऐसे गुमनाम सिपाही जिन्होंने वतन की ख़ातिर अपना सब कुछ न्योछावर कर दिया।
ख़ैर, वापिस आते हैं हमारे विषय पर। विनायक दामोदर सावरकर की ज़िंदगी में सब बदल जाता है जब भारतीय ब्रिटिश सरकार किसी तरह ब्रिटिश सरकार और न्यायालय से उनको गिरफ़्तार कर भारत भेजने का फ़रमान ज़ारी करवा लेती है। वहीं से शुरू होती है उनके विचारों और सिद्धांतों को हमेशा के लिए बदल देने वाली यात्रा। एक ऐसी यात्रा, जिसने इस क्रांति के लिये आतुर चरित्र को पूरी तरह से चूर-चूर कर दिया।
अंडमान और निकोबार द्वीप समूहों में छिपा सेल्यूलर जेल (या काला पानी)
एक होती है जेल, और एक होता है कालापानी। दोनों को समान नज़रों से देखना एक थप्पड़ को गोली लगने के बराबर बताने जैसा होगा। अमानवीय स्थितियों में एक दशक बिताना बातचीत में सरल लगता होगा, पर त्रिपाठी द्वारा आंके गए विस्तृत चित्र से आप वहाँ के एक-एक दिन की कठिनाइयों से रूबरू होते हो। कैसे आपसे एक बैल से भी कई गुना अधिक परिश्रम दिन-ब-दिन कराया जाता है, कैसे आपको दूसरे क़ैदियों से दूरी बनायी रखनी पड़ती है, कैसे भ्रष्टाचार आपके राशन का थोड़ा-बहुत खाना भी हड़प जाता है।
अपने आसपास लोगों को ख़ुदकुशी करते देखना व अपना मानसिक संतुलन खोता देखना किसी के भी मनोबल को चकनाचूर करने के लिए काफ़ी होगा। उसके ऊपर से सरकार द्वारा सावरकर बंधुओं (उनके बड़े भाई भी कालापानी की सज़ा काट रहे थे) के प्रति “विशिष्ट” व्यवहार करने के आदेश। सब संदर्भों और समकालीन घटनाओं को मद्देनज़र रखने पर उनके “माफ़ी पत्र” बड़े ही स्वाभाविक लगते हैं।
स्वाभाविक है इन परिस्थितियों से गुज़रे हुए एक व्यक्ति के मानसिक और वैचारिक स्वरूपों का पूर्णतया बदल जाना। यह समय सावरकर के लिए भी एक गहन परिवर्तन का समय रहा।
विनायक दामोदर सावरकर का हिंदुत्व
जब निकट अतीत और समसामयिक घटित का ही कोई वस्तुपरक और सर्वमान्य पाठ संभव नहीं तो विगत का कैसे हो सकता है! जिन घटनाओं की, जिन ‘कांडों’ के बीच से हम गुज़र रहे है, उनका कोई एकल, सर्वस्वीकृत पाठ उपलब्ध है? सबके दिमाग़ में उनके अलग-अलग कारण, अलग-अलग कारक हैं, सबके लिए अलग-अलग व्यक्ति या व्यक्ति-समूह दोषी और खलनायक हैं तो अलग-अलग व्यक्ति या व्यक्ति-समूह उनकी दुष्टता और षड्यंत्र के मासूम शिकार।
– कमलाकान्त त्रिपाठी, विनायक दामोदर सावरकर: नायक बनाम प्रतिनायक
उनके समसामयिक नेताओं व स्वतंत्रता सेनानियों के विरोधों व अनुरोधों के बावज़ूद महात्मा गांधी ने कई ऐसे निर्णय लिये जो तर्क एवं व्यावहारिक समझ के परे थीं। उनमें से शायद सबसे प्रमुख था ख़िलाफ़त आंदोलन का समर्थन। अपनी जेल की दास्तान और ऊपर से देश में हो रही नाइंसाफ़ियों व ग़लत कदमों का सावरकर पर छाप छोड़ना स्वाभाविक था। स्वाभाविक तब तक, जब तक आप उन्हें पहले से नायक का दर्जा ना दे दें। और यहाँ से ज़ाहिर होती है इस कहानी व पुस्तक का सर्वश्रेष्ठ गुण: एक निस्पक्षता और तटस्थता की कोशिश (कामयाब या नाकामयाब, वो आपका फ़ैसला)।
कमलाकांत सावरकर की विचारधारा को उनके शब्दों में ही प्रस्तुत करते हैं, साथ में उनके समय के संदर्भों व भूमिकाओं को उजागर करते हुए। इंसान एवं उसकी विचारधारा शून्यता से नहीं निकलती, उसे कई कारक मिलकर आकृति देते हैं। उस लिहाज़ से, विनायक दामोदर सावरकर: नायक बनाम प्रतिनायक एक आकृति के बनने की प्रक्रिया को पेश करता है न्यूनतम टीका टिप्पणी के साथ।
कमलाकांत त्रिपाठी द्वारा विनायक दामोदर सावरकर: नायक बनाम प्रतिनायक की पसंदीदा पंक्तियाँ:
सावरकर भी एक मनुष्य थे। मनुष्येतर गुणों से संपन्न होने का या तो लोग आडंबर करते हैं, यह ऐसी गुण उन पर थोप दिये जाते हैं। जब किसी ऐतिहासिक चरित्र को नायक मान लेते हैं, उससे दैवीय गुणों की अपेक्षा करने लगते हैं। ऐसी अपेक्षा से इतिहास नहीं, पुराकथा बनती है। इंग्लैंड के क्रान्तिकारी सावरकर और रत्नागिरी जेल में ‘हिंदुत्व’ नाम से पुस्तक लिखनेवाले सावरकर में समय और अनुभवों का एक लंबा फ़ासला है। ऐसे तीक्ष्ण अनुभव, जिनसे बिरले लोग ही अप्रभावित रह पाते हैं।
निष्कर्ष
एक साढ़े चार सौ पन्नों की किताब, वह भी इतिहास के सबसे विवादित चरित्रों में से एक पर आधारित, को एक खंड या समीक्षा में समेटना तो मुमकिन नहीं, पर कोशिश ज़रूर की जा सकती है। यह एक हैजियोग्राफ़ी (एक जीवनी जो अपने विषय को अनुचित सम्मान के साथ पेश करे) नहीं है, इसलिए पूर्वकल्पित ख़यालात वाले इससे परहेज़ कर सकते हैं। पर जिन्हें विनायक दामोदर सावरकर की एक निष्पक्ष जीवनी की चाह है, एक ऐसी जीवनी जो उनके जीवनकाल व उनके समकालीन वातावरण को बखूबी दर्शाये, तो यह एक शानदार किताब साबित होगी। शायद इस पुस्तक की सबसे बेहतरीन बात ये है कि वो अपने शीर्षक, विनायक दामोदर सावरकर: नायक बनाम प्रतिनायक, को निरर्थक साबित कर देती है।
ना वे नायक थे, ना प्रतिनायक, वह सिर्फ़ विनायक दामोदर सावरकर थे: भारतीय इतिहास का एक महत्वपूर्ण अध्याय।